समाज में बौद्धिक, शैक्षिक और मानवीय सर्वांगीण विकास के लिए पुस्तकालय महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनका महत्व कभी भी कम नहीं आंका जा सकता है, समय के साथ पुस्तकालयों का महत्व अत्यधिक बढ़ रहा है। इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है लेकिन जब हम अपने समाज में आसपास के पुस्तकालयों को देखते है तो ऐसा लगता है कि पुस्तकालय विकास की ओर नहीं बल्कि बर्बादी की दिशा में अग्रसर है। पुस्तकालयों में उपलब्ध अमूल्य धरोहर जर्जर अवस्था में नजर आ रहा है। सुविधाएं नदारद और पुस्तकालयों में समस्याओं का अंबार लगा है लेकिन समस्याओं को दूर करनेवाले संबंधित व्यक्ती विशेष की ओर से सकारात्मक आश्वासन जरूर मिलता है कि जल्द ही समस्याओं का समाधान किया जाएगा। दिन, महीने, साल, दशक बीत गए लेकिन समस्या कम होने का नाम नहीं ले रहे।
देश में तेजी से बढ़ती आबादी की सुविधाओं के लिए नई कॉलोनी, जिम, स्पा, स्विमिंग पूल, गेम जोन, गार्डन, सामाजिक और धार्मिक संस्थान, बाजार, मॉल, हॉस्पिटल सब तैयार किये जाते है लेकिन इन विकसित समाज में पुस्तकालय का कोई महत्वपूर्ण स्थान नजर नहीं आता है। जिस गति से शहरीकरण हो रहा है उसकी तुलना में पुस्तकालय लगातार कम हो रहे है। आजादी के पहले और बाद में भी देश भर में बड़ी संख्या में पुस्तकालयों का विस्तार हुआ। अनेक पुस्तकालय सौ साल से अधिक पुराने हैं, जहां कभी इन पुस्तकालयों में 15-20 कर्मचारी सेवा प्रदान करने के लिए कार्यरत रहते थे आज वहां 1-2 कर्मचारी ही बड़ी मुश्किल से नजर आ रहे हैं। इन पुस्तकालयों में दुर्लभ बेशकीमती खजाने के रूप में साहित्य संग्रह हैं जो अन्यत्र कहीं भी ढूंढने पर भी नजर नही आयेगा। इन अमूल्य धरोहरों की सुरक्षा आभूषणों के समान होनी चाहिए लेकिन इसके उलट यह साहित्य बर्बादी की दास्तान बयां कर रहा है। देश के हर जिले और कस्बे में ऐसे कई पुराने पुस्तकालयों की बदहाली देखी जा सकती है।
इस क्षेत्र का एक विशेषज्ञ ही पुस्तकालय में योग्य प्रबंधन और पाठकों को बेहतर सेवाएं प्रदान कर सकता है लेकिन देश के कई राज्यों के स्कूलों, सार्वजनिक पुस्तकालयों और अन्य विभागों में सालों से लाइब्रेरी स्टाफ की भर्ती नहीं की गई है। कर्मचारी सेवानिवृत्त होते रहते है लेकिन नए कर्मचारी नहीं आते, कई स्थानों पर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों भरोसे पुस्तकालय चल रहे हैं, पुस्तकालय में कार्यरत कर्मचारी अल्प वेतन भोगी होते है और उन्हें कई महीनों तक वेतन भी नहीं मिलता है। एक तरफ हम शिक्षा को बढ़ावा दे रहे हैं और दूसरी तरफ पुस्तकालयों के विकास की अनदेखी कर रहे हैं। इन पुस्तकालयों में पाठकों के लिए अत्याधुनिक संसाधन देखना तो दूर बुनियादी पुस्तकालय सेवाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। कई पुस्तकालयों में साहित्य के नाम पर कुछ समाचार पत्र ही दिखाई देते हैं। जिस तरह शहर अब महानगर का रूप ले रहे हैं, पुस्तकालयों की संख्या तदनुसार नहीं बढ़ रही है। पुस्तकालय में पढ़ने के लिए दूर-दूर से छात्र आते हैं, देश में पुस्तकालयों की कमी है।
देश भर में हजारों पुस्तकालय अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं अर्थात कई पुस्तकालय पर्याप्त निधी और बेहतर प्रबंधन की कमी के कारण खत्म होने के कगार पर हैं, वहां की बेहद अमूल्य पुस्तकें, पांडुलिपियां, बहुमूल्य पाठ्य साहित्य सामग्री खराब हो रही है, कई पुस्तकालयों में पाठकों के लिए पर्याप्त मेज, कुर्सियाँ, पंखे, रोशनी, पीने का पानी, शौचालय, बिजली भी नहीं है और पुस्तकालय भवन की खिड़कियां, दरवाजे, दीवारें कमजोर हो गई हैं। बारिश में छत से पानी टपकता है। पुस्तकालय भवन जर्जर हालत में है, जिससे कभी भी बड़ा हादसा हो सकता है। छोटे शहरों से लेकर बड़े शहरों तक हर जगह यही स्थिति देखी जा रही है फिर भी ऐसी परिस्थितियों में भी पाठक बड़ी संख्या में पुस्तकालयों का उपयोग कर रहे हैं। उज्जवल भविष्य के लिए बेहतर अध्ययन एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के कारण पुस्तकालय के प्रति युवाओं का रुझान बढ़ा है। पुस्तकालय, पाठकों को स्कूल से जीवन के अंत तक साथ देते है और आज ऐसे कई पुस्तकालय खुद ही अपने अंतिम दिनों में पहुंच गए हैं। देश के सामाजिक विकास में पुस्तकालयों का अमूल्य योगदान है|
स्टाफ की कमी और उचित निगरानी के अभाव के कारण किताब चोरी की कई घटनाएं होती हैं, कई किताबों के पृष्ठ भी फटे हुए मिलते हैं, लोग किताबों में से अपनी पसंद की तस्वीरें या कतरन काटते हैं, इससे कई बेशकीमती किताबें नष्ट हो चुके हैं| फटी-पुरानी किताबें, नई पुस्तकों का अभाव, समाचारपत्रों का न होना यह सब मिलकर पुस्तकालय की प्रतिष्ठा को धूमिल कर रहे हैं। टूटे हुए फर्नीचर का ढेर लगा है। छत की सीलिंग भी धीरे-धीरे कर गिरने लगी है, पुस्तकालय में बुक रैक दुरुस्त नहीं है, परिणामस्वरूप पुस्तकालय में रखी पुस्तकों में किताबों में दीमक तो हैं ही, साथ ही चींटी के साथ चूहे भी साहित्य बर्बाद कर रहे हैं।
अक्सर ऐसे समस्याग्रस्त पुस्तकालयों के अमूल्य धरोहर को बचाने व सुधार हेतु संबंधित अधिकारियों या समिति को ज्ञापन देकर सूचित किया जाता है, बार-बार उनका ध्यान आकर्षित किया जाता है और उनका भी यह कहना है कि जल्द ही समस्या का समाधान हो जाएगा लेकिन समय बीतता जाता है और समस्या बढ़ती जाती है। आखिर क्यों पुस्तकालयों की अमूल्य धरोहर की बर्बादी और उपेक्षा लगातार बढ़ती जा रही है। बहुत बार खबरें मिलती है कि ऐसे कई पुस्तकालयों के प्रांगण में शाम से असामाजिक गतिविधियां सक्रिय होती है, कई पुस्तकालयों पर अवैध कब्जा करने का प्रयास किया जा रहा है, तो कई पुस्तकालयों की बगल में कूड़े के ढेर लगाये है, जिससे पुस्तकालयों में दुर्गंध और मच्छरों का प्रकोप है। बारिश में कीचड़ जमा हो जाता है, तो कई घास उग आयी है। ऐसे में पाठक अपने आप को असुरक्षित महसूस करते हैं।
इन समस्याओं के कारण योग्य साहित्य पाठकों तक नहीं पहुंच पाता है फिर पुस्तकालय सूचना विज्ञान के पितामह पद्मश्री डॉ. एस. आर. रंगनाथन द्वारा दर्शाये फाइव लॉ का पालन करना तो बहुत दूर की बात है। देशभर में डॉ. एस. आर. रंगनाथन जी का जन्मदिन “राष्ट्रीय पुस्तकालयाध्यक्ष दिवस” के रूप में 12 अगस्त को मनाया जाता है। उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया है, विश्व स्तर पर पुस्तकालय सूचना विज्ञान के क्षेत्र में उनके अतुलनीय योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा 1957 में उन्हे पद्मश्री से सम्मानित किया गया। आज अगर डॉ. रंगनाथनजी होते तो समस्याओं से जूझ रहे ऐसे पुस्तकालयों को देखकर क्या सोचते? विदेशों में इस अमूल्य धरोहर के प्रबंधन और उपयोगिता पर विशेष ध्यान दिया जाता है, इससे जुड़े हर पहलू का महत्व समझा जाता है और होना भी चाहिए क्योंकि यह अनमोल अत्यंत दुर्लभ साहित्य फिर कभी नहीं मिलेगा, लेकिन हम महत्व तो मानते है परंतु वास्तविकता में जानते नहीं।
डॉ. प्रितम भि. गेडाम

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